Wednesday, February 15, 2017

थार के प्रेरणा स्रोत: चतर सिंह जाम

इन सब बड़े कामों के बावजूद जाम साहब का व्यक्तित्व सरल है. फोटो: फरहाद कांट्रेक्टर 


कम बरसात के बावजूद चतर सिंह जाम ने परंपरागत जल व्यवस्थाओं को पुनर्जीवित कर जैसलमेर के कई गांवों को आत्मनिर्भर बनाया है 

 “क्या तुम्हे भी आसमान में सफ़ेद और काली पट्टियाँ दिख रही हैं,” चतर सिंह ने मुझसे पूछा. मेरे हाँ कहने पर वह बोले, “यह मोघ है. अभी जहाँ सूरज छिप रहा है वहां बादल हैं. अगर इस तरफ की हवा चले तो यह रात तक यहाँ पहुंच कर बरस सकते हैं. रेगिस्तान में लोग इनकी प्राकृतिक चिन्हों पर निर्भर रहते हैं.”  

हम रामगढ में थे, जैसलमेर से 60 कि.मी दूर भारत-पाक सीमा की तरफ. इस क्षेत्र की सालाना औसतन बारिश 100 मी.मी है और वह भी हर साल नहीं. दस साल में तीन बार सूखे का सामना करना पड़ता हैं. पर थार रेगिस्तान के इंन गाँवों में पानी है, पलायन नहीं. इस उपलब्धी का बहुत बढ़ा श्रेय 55 साल के चतर सिंह जी को जाता है. उन्हें लोग उनके पारिवारिक पदवी ‘जाम साहब’ से भी बुलाते हैं.

मेरा नहीं समाज का काम 

जाम साहब समभाव नाम की एक संस्था से जुड़े हैं जो लोगों के साथ मिल कर जल व्यवस्थाओं को मजबूत करने का काम करती है. पिछले 10 सालों में इन्होने काफी लोगों को उन परंपरागत जल संरचनाओं को पुनर्जीवित करने के लिए प्रेरित किया जो कठिन परिवेश के बावजूद खेती और पशुधन को पालती हैं. यहाँ दो सतही व्यवस्था काम करती है: उपर अच्छी बरसात में तालाब और जोहड़ भर जाते हैं और 15-20 फीट नीचे खडिया मिटटी या जिप्सम की एक पट्टी जमीन में रिस कर आने वाले पानी को संजो कर रखती है, मुश्किल दिनों के लिए. यह पानी उस भूजल से बिलकुल अलग है जो जमीन में काफी गहरा और खारा है. जब तालाब सूख जाते हैं तब यही मीठा पानी कुईं या बेरियों द्वारा निकाला जाता है.

यहाँ खेत अपना मूल नाम छोड़ कर खड़ींन बन जाता है. एक धनुष या कोहनी की शक्ल का बाँध लम्बे चौड़े आगोर से आते बरसाती पानी में ठहराव लाता है और जिप्सम की पट्टी इसे नीचे जाने से रोकती है. इस तरह जमीन को उतनी नमी मिल जाती है जिससे राबी की फसल फल-फूल सके. सदियों से कितने ही सामूहिक खड़ींन इस क्षेत्र में साम्यिक तौर पर अन्न उपलब्ध करवा रहे हैं.

परन्तु सरकारी योजनाओं पर बढती निर्भरता के कारण यह संरचनाएं और सामाजिक जुडाव टूट सा गया था. जब सरकारी सहायता देर तक न टिक सकी तो गाँव वालों के पास पलायन के सिवाय कोई चारा न बचा. उस समय चतर सिंह जी ने सामूहिक कार्य की रीत को फिर से सजीव किया और लोगों ने मिल कर न सिर्फ अपने पुरखों के खड़ींन, बेरियाँ और तालाबों को सुधारा बल्कि नयी संरचनाएं भी रची.

हालाँकि जाम साहब ने काफी संस्थायों के साथ काम कि
एक बेरी से पानी भरती महिलाएं
या है पर वह मानते हैं कि समभाव से जुड़ने के बाद ही उनमें समाज की ज्यादा समझ बनी: “पहले मैं सामान्य कर्मचारी की तरह प्रोजेक्ट के हिसाब से काम करता था. लोगों से जुडाव कम था. समभाव के साथ मैंने जाना कि समाज का काम समाज के साथ मिल कर कैसे किया जाये.”

यह बात मुझे तब ज्यादा स्पष्ट हुई जब 2014 में मेरा जाम साहब के साथ मीरवाला जाना हुआ. मीरवाला रामगढ़ से दक्षिण में रेत के टीलों के बीच एक छोटा सा गाँव जो अपने ढह चुके कुँए को फिर से सजीव करना चाहता था. यथास्थिति जानने के बाद चतर सिंह मुझसे मुखातिब हुए: “यह कुआँ 252 फीट तक जाता है. यहाँ पर कुआँ खोदना सबसे मुश्किल काम है क्योंकि रेत कभी भी खिसक सकती है. पर इनके पास पानी ज़रूर होना चाहिए.” जब तक हम वहां से रवाना हुए बाड़मेर जिले के कुँए के कारीगरों से बात कर उनका मीरवाला आने का प्रबंध हो चुका था. समभाव ने सिर्फ इस प्रक्रिया को सुगम बनाया जबकि काम का सारा खर्चा गाँव वालो ने दिया. ऐसे काम ज्यादा समय तक टिके रहते हैं क्योंकि उनमें लोगों का स्वामित्व का भाव ज्यादा रहता है.

चतर सिंह जी ने इसी सोच को आगे बढ़ाने के लिए तीन साल पहले 50 हेक्टेयर के एक सामूहिक खड़ींन पर व्यक्तिगत तौर से काम शुरू किया है. आठ गाँव की सांझी सम्पति होने के बावजूद यह खड़ींन उपेक्षाकृत और जंगली बबूल से अटा पड़ा था. अभी तक यह एक मिला जुला अनुभव रहा है. पहले साल बरसात नहीं हुई, दूसरा साल भरपूर रहा पर अब फिर सूखा है. जाम साहब कहते हैं: “लोगों की नजर में यह काम आ चूका है. अगली बरसात तक मुझे उम्मीद है वह सम्मलित हो जायेंगे.”    

चतर सिंह कई बार अच्छे कार्य का साथ देने के लिए प्रभावशाली लोगों से भी भिड चुके हैं. रामगढ में भू माफिया के खिलाफ उनकी अर्जी के बाद उन पर हमला भी हुआ पर फिर भी वह डटे रहे और आरटीआई एक्टिविस्ट बाबू राम चौहान का साथ भी दिया.  

एक कहानीकार भी 

जाम साहब के व्यक्तित्व का एक और गुण है उनका अंदाज़े ब्यान. वह राजस्थान की मौखिक कथा वाचन की प्रथा को आगे बढाते हैं. चाहे वह पालीवाल ब्राह्मणों के रातोंरात पलायन का दुःख हो या फिर लहास के जरिये पूरे समाज का तालाब बनाने की ख़ुशी, उनकी आवाज़ की तान हमेशा दिल पर कायम हो जाती है.

रेगिस्तान की वनस्पतियों की जानकारी से ले कर तारों के जरिये दिशा अनुमान, जाम साहब का ज्ञान भंडार विलक्षण है. यही वजह है कि कई ग्रामीण और शहरी लोग इन्हें अपना गुरु मानते हैं. गंभीर हास्य के ज़रिये किसी बात को समझाना भी यह बखूबी जानते हैं. यह सुनिए: “मैंने कभी मच्छर नहीं देखा था. जब एक स्कूल की परीक्षा के लिए जयपुर जाना था तो बुजुर्गों ने पूछा जब मच्छर काटने आयेगा तो क्या करेगा? मैंने कहा: “आने दो. मेरे पास मेरा लट्ठ होगा न.” तब रेगिस्तान में मच्छर नहीं थे, आज इंदिरा गाँधी नहर की बदौलत हर दूसरे साल मलेरिया फैलता है.”

आजकल वह फेसबुक जैसे माध्यमों से जुड़ कर अपने शहरी शागिर्दों के और समीप आ गए है. पिछले साल के इस लेख में उन्होंने लातूर के अकाल की तुलना रामगढ की जल दक्षता से कर एक महत्वपूर्ण संदेश जिस सरल ढंग से दिया उसकी हर जगह तारीफ हुई. इन सब बड़े कामों के बावजूद जाम साहब का सरल व्यक्तित्व यह आश्वासन देता है कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं.

इस लेख का अंग्रेजी रूपान्तर इंडिया वाटर पोर्टल पर उपलब्ध है