Sunday, August 26, 2012

बुद्धि और जीवी


बुद्धि  और  जीवी  दोनों  भाई, जग  की  बानी  बांचे  जाएँ 
बादल, सूर्य , आकाश  ये  धरती , उनको  अपनी  व्यथा  कहायें 

कैसी  है  इस  पल  की  विपदा , किसी  को  कुछ  आये  न  सुझाये
इसकी  चिट्ठी  उसको  पहुंचे , इसका  न्योता  कौवा  ले  जाये

माघ  महीना  बसंत  तक  पसरा , बेला  बहार  विराग  मनाये
गर्मी  की  जो  रुत  आ  जाये , टिके  यहीं  बिन  मूल  चुकाए

सावन  रूठा , भादो  भीगा , दोनों  की  गजब  पकड़म पकड़ाई
मोर  फिरे  हैं  बिफरे  बिफरे , बदरा  देर  से  प्रसंग  रुत  लाये

जंगल  में  पहले  आग  लगी  फिर  पेड़  पहाड़  सब  नदी  बन  जाएँ
पल  में  उफने , पल  में  बिसरे , सागर  अपनी  चाल  न  पाये

सब  अंबर  को  रहे  लताड़े , वह  उल्टा  धरती  को  कोसे
इसकी  चिट्ठी  उसको  पहुंचे, इसका  न्योता  कौवा  ले  जाये

मानव  जो  ये  गाथा  कहावे , Internet पर  लिख  लिख  मनन  भरमाये
climate का  तो  change हो  गया , तेरी  बुद्धि  कब वापस  आवे

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